विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi)

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विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi) Vikas ke Siddhant

विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi)

डेवलपमेंट यानी विकास के कई सिद्धांत प्रचलित है जिनमें से मुख्य निम्न है-

  1. मनोविश्लेषणवाद सिद्धांत
  2. मनोलैंगिकवाद सिद्धांत
  3. संज्ञानवाद सिद्धांत
  4. मनोसामाजिकवाद विकास सिद्धांत
  5. नैतिक विकास सिद्धांत
  6. भाषा विकासवाद सिद्धांत
  7. निर्मितवाद सिद्धांत

मनोविश्लेषणवाद सिद्धांत

मनोविश्लेषण का अर्थ है मन का विश्लेषण करना। सन 1900 में सिगमंड फ्रायड ने अपनी पुस्तक “इंटरप्रिटेशन ऑफ ड्रीम्स (interpretation of dreams)” में मनोविश्लेषणवाद प्रस्तुत किया। सिगमंड फ्रायड ने मानव के मन के तीन भाग बताएं –

  1. चेतन मन
  2. अर्धचेतन मन
  3. अवचेतन मन

चेतन मन

इसका  सम्बन्ध वर्तमान में उपस्थित तत्कालित ज्ञान से है।किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में 10%  योगदान चेतन मन होता है।

अर्धचेतन मन

यह चेतन मन व अवचेतन मन का मध्य का भाग है।

अवचेतन मन

इसमें व्यक्ति की दमित इच्छाएँ विद्यमान होती किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व में 90% योगदान अवचेतन मन होता है।

 

मनोलैंगिकवाद सिद्धांत

इस सिद्धांत का प्रतिपादन की सिगमंड फ्रायड के द्वारा किया गया। इस के अनुसार जीवन का आधार काम शक्ति यानी लिबिडो है। जबकि फ्रायड के शिष्य कार्ल गुस्ताव युंग ने जीवन का आधार लिबिडो के स्थान पर जीवन शक्ति को मना है।

एडलर के अनुसार जीवन का आधार आत्म सिद्धि है।

एरिक्सन Ericsson के अनुसार जीवन का आधार सामाजिक अनुभूति है।

लिबिडो के अनुसार सिगमंड फ्रायड ने विकास को पांच अवस्थाओं में बांटा हैं-

  • मुखीय अवस्था
  • गुदीय अवस्था
  • लैंगिक ग्रंथि अवस्था
  • प्रसुप्त अवस्था
  • जननेंद्रिय अवस्था

मुखीय अवस्था

समय – 0-2 वर्ष

इस अवस्था में लिबिडो का प्रभाव मुख के आसपास के क्षेत्र में पाया जाता है। बालक स्तनपान के माध्यम से अपने लिबिड़ो को शांत करता है।

यदि बालक को उचित समय पर स्तनपान न करवाया जाए, तो वह अंगूठा उसमें लगता है। जो लिबिडो को शांत करता है।

 

 

गुदीय अवस्था

समय- 3-4 वर्ष

इसके अनुसार बालक में लिबिडो का क्षेत्र गुदा के आसपास का क्षेत्र होता है।

 

लैंगिक ग्रंथि अवस्था

समय – 5-6 वर्ष

फ्रायड के अनुसार इस अवस्था में बालक में दो प्रकार की  लैंगिक ग्रंथियों का विकास होता हैं-

  1. आदिपस ग्रंथि – इसका विकास लड़कों में होता है। जिनके कारण उनका व्यवहार पितृत्व विरोधी तथा मातृत्व स्नेही होता है।
  2. इलेक्ट्रा ग्रंथि – इसका विकास लड़कियों में होता है। इनके कारण उनकी प्रवृति मातृत्व विरोधी तथा पितृत्व स्नेही होती है।

प्रसुप्त अवस्था

समय – 7-11 वर्ष

इस अवस्था में बालक में लिबिडो तो पाया जाता है। लेकिन वह लिबिडो का प्रदर्शन नहीं करता।

 

जननेंद्रिय अवस्था

समय- 12 वर्ष के बाद

इसमें लिबिडो का प्रयोग केवल संतान उत्पत्ति के लिए होता है तथा लिबिडो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संतानों के माध्यम से स्थानांतरित होता है।

 

 


 

संज्ञानवाद सिद्धांत

इस सिद्धांत का प्रतिपादन जीन पियाजे ने किया। जीन पियाजे ने मनुष्य के जीवन की चार अवस्थाएं बताई हैं-

  • संवेदी गामक अवस्था
  • पूर्व संक्रिया काल अवस्था
  • मूर्त संक्रिया काल अवस्था
  • अमूर्त संक्रिया काल अवस्था

 

संवेदी गामक अवस्था

इसकी अवधि 1 से 2 वर्ष होती है। जीन पियाजे के अनुसार बालक जन्म से ही कोरी स्लेट नहीं होता। वह कुछ शारीरिक क्रियाएं जैसे पकड़ना, लपकना, घिसटना आदि करता है।

जीन पियाजे के अनुसार यह क्रिया शारीरिक ना होकर बौद्धिक संरचना है। जिन्हें जीव विज्ञान में स्कीमा कहा गया। इस अवस्था में बालक प्रत्यक्षीकरण अपनाता है तथा वस्तु स्थिरता का भाव उत्पन्न होता है।

 

वस्तु स्थिरता

लगभग 1 वर्ष के बालक को सात आठ दिनों तक कोई वस्तु खाने के लिए दी जाती है। और यदि उस वस्तु को अचानक से छुपा लिया जाए तो बालक उसे ढूंढने का प्रयास नहीं करता। क्योंकि उस वस्तु के प्रति बालक में के मन में स्थिरता का भाव उत्पन्न नहीं होता।

लेकिन लगभग 2 वर्ष के बालक के साथ अगर ऐसा किया जाए तो नौवें दिन बालक उस वस्तु को ढूंढने का प्रयास करता है। क्योंकि बालक के मन में वस्तु स्थिरता का भाव उत्पन्न होने लगता है।

 

पूर्व संक्रियाकाल अवस्था

इसकी अवधि 3 से 6 वर्ष के मध्य होती है। इसी अवस्था में बालक नकलची प्रवृति अपनाता है और बालक ध्वनि अनुकरण (नकल) के माध्यम से भाषाएं सीखता है। गिनती, पहाड़े सीखना, वर्णमाला सीखना, खेलना-कूदना, शब्दों को दोहराना, गुड्डे-गुड़ियों का श्रृंगार आदि क्रियाएँ सीखता है।

इस अवस्था में मूर्त चिंतन का आधार प्रारंभन है। बालक में आत्मा केन्द्रीयता का विकास हो जाता है।

 

मूर्त संक्रिया काल अवस्था

इसकी अवधि 7 से 11 वर्ष के मध्य होती है। इस अवस्था में बालक तार्किक चिंतन मूर्त चिंतन प्रारंभ कर देता है। बालक सीमित मात्रा में कल्पनाएं करना प्रारंभ कर देता है।

बालक एक दिशीय अनुत्क्रमणीय कार्य करता है तथा द्विदिशीय व्यूत्क्रमणीय तार्किक चिन्तन करने असफल रहता है।

इस अवस्था में विशिष्ट रूपांतरण का गुण पाया जाता है।

 

अमूर्त संक्रिया काल अवस्था

इसकी अवधि 12 से 18 वर्ष के मध्य होती है। इसे औपचारिक संक्रिया काल अवस्था भी कहते है। इसमें बालक मूर्त चिंतन करना शुरू कर देता है तथा अमूर्त वस्तुओं के बारे में चिंतन प्रारंभ करता है। इस अवस्था में बालक में तार्किक चिंतन, परिकल्पनात्मक का दशानुकूलन व आत्मसातिकरण के गुणों का विकास होता है।

 

 

मनोसामाजिकवाद विकास

यह एरिक्सन के द्वारा दिया गया। इसके अनुसार सामाजिक अनुभूति जीवन का आधार है।

मनोसामाजिक विकास में जीवन की आठ अवस्थाएं बताई गयी हैं-

 

प्रथम अवस्था

समय- 0 से 2 वर्ष

इसमें विश्वास व अविश्वास की भावना का विकास होता है।

 

द्वितीय अवस्था

समय- 2 से 4 वर्ष

इसमें संदेह, स्वतंत्रता एवं विद्रोह की भावना का विकास होता है।

 

तृतीय अवस्था

समय- 5 से 6 वर्ष

इसे आत्मबल एवं आत्म हीनता की अवस्था कहा जाता है।

 

चतुर्थ अवस्था

समय- 7 से 11 वर्ष

इसमें परिश्रम की भावना का विकास होता है।

 

पंचम अवस्था

समय- 12 से 18 वर्ष

यह पहचान एवं भूमिका की अवस्था है।

 

छठी अवस्था

समय- 19 से 35 वर्ष

इसमें प्रेम व अलगाव की भावना का विकास होता है।

 

सातवी अवस्था

समय- 35 से 55 वर्ष

इस अवस्था में उत्पादन एवं निष्क्रियता के भावना का विकास होता है।

 

आठवी अवस्था

55 के बाद

इसमें ईमानदारी और निराशा के गुणों का विकास होता है।

विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi)


 

नैतिक विकास सिद्धांत

यह सिद्धांत लारेंस कोहलरबर्ग के द्वारा दिया गया। इसके अनुसार विकास का प्रमुख आधार तर्क तथा चिंतन है।

तर्क व चिंतन के आधार पर जीवन को निम्न भागों में वर्गीकृत किया गया है-

  1. पूर्व नैतिक विकास
  2. नैतिक विकास
  3. पश्च नैतिक विकास

 

पूर्व नैतिक विकास

इस प्रकार के विकास के दौरान बालक में तर्क व चिंतन का आधार बाहरी वस्तुएं होती है। आज्ञा व दण्ड की भावना पाई जाती है। ज़िद व अहंकार की भावना का विकास होता है। शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में पूर्व नैतिक विकास होता है।

 

नैतिक विकास

इस प्रकार के विकास में समाज में सम्मान की भावना का विकास होता है। तर्क का आधार सम्मान होता है। तथा किए गए कार्य के प्रति प्रशंसा की भावना का विकास होता है। किशोरावस्था तथा युवावस्था में नैतिक विकास होता है।

 

पश्च नैतिक विकास

तर्क का आधार विवेक होता है। समझौता तथा विवेक से निर्णय लेने की क्षमता का विकास होता है। प्रोढ़ावस्था तथा वृद्धावस्था में इस प्रकार का विकास होता है।

 

विकास के सिद्धांत (Principles of Development in Hindi) Vikas ke Siddhant


भाषा विकास वाद

भाषा विकास वाद का प्रतिपादन चोमस्की ने किया। जिसके अनुसार जन्म के समय बालक विश्व की सभी भाषाओं की व्याकरण के साथ जन्म लेता है। इसे “जेनरेटिव थ्योरी ऑफ ग्रामर” कहा जाता है।

इस सिद्धांत के अनुसार बालक का विकास निम्न चरणों में संपन्न होता हैं-

 

प्रथम चरण

समय- 1 वर्ष

बालक ध्वनि को पहचानता है।

 

द्वितीय चरण

समय- 2 वर्ष

बालक शब्दों का विकास करता है।

 

तृतीय चरण

समय- 3 वर्ष

बालक ध्वनि में अंतर करना सीख जाता है।

 

चौथा चरण

समय- 4 वर्ष

बालक गिनती, पहाड़े, अक्षर का ज्ञान करना तथा लिखना सीख जाता है।

 

पांचवा चरण

समय- 5 वर्ष

बालक शब्दों का प्रयोग करना सीख जाता है।

 

छठा चरण

समय- 6 वर्ष

बालक छोटा शब्दकोश तैयार कर लेता है।

 

सातवा चरण

समय- 7 से 8 वर्ष

बालक कहानी और कविता याद कर के सुनाता है।

 

आठवां चरण

समय- 12 वर्ष

बालक भाषा का प्रयोग करता है, तथा शब्दकोश निर्मित कर लेता है।

 

 


 

निर्मित वाद

यह जीन पियाजे द्वारा दिया गया। निर्मित वाद की जड़े संज्ञानवाद में है।

निर्मित वाद दो प्रकार का होता हैं-

  1. संरचनात्मक निर्मित वाद
  2. सामाजिक निर्मित वाद

 

 

संरचनात्मक निर्मित वाद

इसका का जनक जीन पियाजे तथा ब्रूनर है। इसके अनुसार बालक पूर्व ज्ञान के साथ नवीन सूचनाओं को जोड़ता है, जिससे नवीन ज्ञान का निर्माण होता है। यह सिद्धांत व्यक्ति विशिष्ट होता है।

 

 

सामाजिक निर्मित वाद

इसका प्रतिपादन लेव वाइगोत्सकी तथा ग्लेसर फिल्ड के द्वारा किया गया। इसके अनुसार व्यक्ति के समान निर्मित का आधार उसका सामाजिक परिवेश होता है। वह सामाजिक परिवेश में रहते हुए बड़ों से सीखता है तथा परस्पर अन्तः क्रियाशील रहता है। इस सामाजिक परिवेश को जेडपीडी (Zone of Proximal Developmentd) कहते है।

 

 

शारीरिक विकास के आयाम

  1. किशोरावस्था
  2. शैशवावस्था
  3. बाल्यावस्था
  4. किशोरावस्था

 

 

विकास को प्रभावित करने वाले कारक

  1. वातावरण
  2. वंशानुक्रम
  3. परिवार की समाज में स्थिति
  4. परिवार की आर्थिक स्थिति
  5. आवश्यकता का प्रभाव
  6. परिवार की सांस्कृतिक स्थिति
  7. पालन-पोषण रिती-रिवाज का प्रभाव
  8. सिनेमा का प्रभाव
  9. संस्कृति का प्रभाव
  10. विद्यालय के वातावरण का प्रभाव
  11. शिक्षक का प्रभाव

 

बाहरी कड़ियां

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