राजस्थान की प्रमुख लोक कलाएँ तथा हस्त कलाएँ (Rajasthan ke Pramukh Lok Kala or Hast kala)
उस्ता कला
ऊंट की खाल पर कलात्मक चित्रकारी उस्ता कला कहलाती है। इसके कलाकार उस्ताद कहलाते हैं, इसे मूनव्वती कला भी कहते है। यह कला मूलतः लाहौर की है। इसका प्रमुख क्षेत्र बीकानेर है। बीकानेर में उस्ता कला को लाने का श्रेय महाराज अनूप सिंह को है। उस्ता कला के प्रमुख कलाकार हिसामुद्दीन उस्ता है। तथा उस्ता कला के लिए camel hide trading Centre Bikaner में बनाया गया।
मथरेणा कला
धार्मिक स्थलों पर देवी-देवताओं का चित्र बनाना मथरेणा कला कहलाता है। इसका प्रमुख केंद्र बाड़मेर है।
चटापटी
बीकानेर तथा अजमेर में एक कपड़े को काटकर दुसरे पर टांककर तोरण, झूले, रथ के परदे बनाये जाते है।
थेवा कला
हरे कांच पर सोने के सूक्ष्म चित्रांकन थेवा कला कहलाती है। थेवा कला के लिए प्रतापगढ़ का राज सोनी परिवार प्रसिद्ध है। थेवा कला की जानकारी सिर्फ पुरुषों को ही होती है।
NOTE – थेवा कला का उल्लेख एनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटानिका में भी किया गया है।
मीनाकारी
सोने के आभूषणों पर रंगो की जड़ाई मीनाकारी कहलाती है। राजस्थान में जयपुर की मीनाकारी प्रसिद्ध है। यह मूलतः पर्शिया यानि ईरान की कलाकारी है। राजस्थान में मीनाकारी लाने का श्रेय मानसिंह प्रथम को जाता है। मीनाकारी का प्रमुख कलाकार कुदरत सिंह है।
मीनाकारी चार प्रकार की होती हैं-
- सफेद चावला
- तैयारी
- लाल जमीन
- बूंदी किला
मुरादाबादी कला
पीतल के बर्तनों पर खुदाई कर की गयी कलात्मक नक्काशी मुरादाबादी कला कहलाती है। जो जयपुर की प्रसिद्ध है।
कोफ्तगिरी
धातुओं से बनी वस्तुओं पर सोने के पतले तारों की लड़ाई कोफ्तगिरी कहलाती है। जो जयपुर तथा अलवर की प्रसिद्ध है।
बेवाण
इसे देवी विमान या मिनी वुड ऐचर टेंपल भी कहते हैं, यह लकड़ी का बना छोटा मंदिर होता है। जलझूलनी एकादशी पर बेवाण निकाला जाता है। बेवाण के प्रमुख चित्र कलाकार प्रभात जी सुथार है। यह बस्सी क्षेत्र चित्तौड़ की प्रसिद्ध है।
कावड़
विभिन्न कपाटों में खुलने वाली लाल रंग के मंदिरनुमा कलाकृति कावड़ कहलाती है। कावड़ के अंत में राम-सीता के दर्शन होते हैं इसे चलता फिरता देवघर भी कहा जाता है। बस्सी क्षेत्र चित्तौड़गढ़ के खेरादी जाति के लोगों द्वारा इसका निर्माण किया जाता है।
टेराकोटा कला
बिना सांचे का उपयोग किए मिट्टी की मूर्तियां व खिलौने बनाना टेराकोटा कला कहलाता है। जिसका प्रमुख क्षेत्र मोलेला गांव नाथद्वारा (राजसमन्द) तथा प्रमुख कलाकार मोहनलाल कुमार है। टेराकोटा को भौगोलिक चिन्हीकरण प्राप्त है।
यह दो प्रकार का होता हैं-
- कागजी टेराकोटा
- सुनहरी टेराकोटा
कागजी टेराकोटा
इसमें पतले बर्तनों पर चित्रकारी की जाती है। जो अलवर का प्रसिद्ध है।
सुनहरी टेराकोटा
इसमें बर्तनों पर सुनहरे रंग की चित्रकारी होती है। जो बीकानेर का प्रसिद्ध है।
फड़ कला
कपड़े या कैनवास पर देवताओं की जीवनी का चित्रण फड़ कला कहलाता है। कलाकार के फड़ कलाकार चितेरे कहलाते हैं, इसका प्रवर्तक पंचा जी जोशी जो पुर भीलवाड़ा के निवासी है। इसके प्रारंभिक कलाकार बख्तावर जी, धूल जी, टेक जी तथा प्रमुख कलाकार श्री लाल जोशी व उनका परिवार है। जो शाहपुरा भीलवाड़ा के निवासी हैं प्रमुख महिला चितेरी पार्वती जोशी है। फड़ का प्रमुख रंग लाल होता है।
NOTE – फड़के फटने पर या जीर्ण-शीर्ण होने पर पुष्कर झील में प्रवाहित करना फल को ठंडी करना कहलाता है।
प्रमुख फड़े
देवनारायण जी की फड़
इनका वाचन गुर्जर जाति के लोग करते हैं ,यह सर्वाधिक प्राचीन, सर्वाधिक चित्र वाली और सर्वाधिक लंबी फड़ है। 1992 में डाक टिकट जारी किए गए अतः ये सबसे छोटी फड भी है। इसका वाद्य यंत्र जंतर है।
पाबूजी की फड़
इस फड का वाचन नायक रेबारी जाति के भोपों के द्वारा किया जाता है। इसका प्रमुख वाद्य यंत्र रावणहत्था है। पाबूजी की फड़ सर्वाधिक लोकप्रिय फल है। पाबूजी के पवाड़े माठ वाद्ययंत्र के साथ गाए जाते है।
रामदेव जी की फड़
इसका वाचन कामड जाति के लोगों द्वारा रावणहत्था के साथ किया जाता है।
रामदला-कृष्णदला की फड़
इस फड का वाचन दिन में किया जाता है। इस फल के वचन में वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता इस फंड में कृष्ण और राम की जीवनी तथा आम जन-जीवन का चित्रण है।
भैसासुर की फड़
इस फड का वाचन नहीं किया जाता केवल बावरी या बागरी जाति के लोगों द्वारा चोरी करने से पहले पूजा जाता है।
पॉटरी कला
चीनी मिट्टी के बर्तनों पर कलात्मक चित्रकारी पॉटरी कला कहलाती है। जो मूलतः पर्शिया ईरान की है। इसे राजस्थान में लाने का श्रेय महाराज मानसिंह प्रथम को है।
यह दो प्रकार की होती हैं
- ब्लू पॉटरी
- ब्लैक पॉटरी
ब्लू पॉटरी
इस में चीनी मिट्टी के बर्तनों पर नीले रंग की चित्रकारी की जाती है। इस पॉटरी का सर्वाधिक विकास सवाई राम सिंह द्वारा किया गया ब्लू पॉटरी के प्रमुख कलाकार कृपाल सिंह शेखावत है। ब्लू पॉटरी कला को भौगोलिक चिन्हीकरण प्राप्त है। इसका प्रमुख क्षेत्र जयपुर है।
ब्लैक पॉटरी
चीनी मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग की चित्रकारी करना ब्लैक पॉटरी कहलाता है। कोटा के ब्लैक पॉटरी के फूलदान प्रसिद्ध है।
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रँगाई-छपाई कला
रँगाई-छपाई का कार्य छीपों के द्वारा किया जाता है। रँगाई-छपाई करना प्रिंट कहलाता हैं-
सांगानेरी प्रिंट
सांगानेर (जयपुर) नामदेव छीपा के द्वारा किया जाता है। सांगानेरी प्रिंट उद्योग ढूंढ तथा बांड़ी नदियों के किनारे विकसित हुआ।
बगरू प्रिंट
यह बगरू (जयपुर) का प्रसिद्ध है। इसमें सामान्यतः काला व लाल रंग का उपयोग किया जाता है।
मलीर प्रिंट
यह बालोतरा (बाड़मेर) का प्रसिद्ध है। इसमें कत्थई व काला रंग का उपयोग होता है।
अजरख प्रिंट
यह बालोतरा (बाड़मेर) का प्रसिद्ध है। इसमें लाल और नीला रंग का उपयोग होता है।
आजम या जाजम प्रिंट
यह अकोला चित्तौड़ का प्रसिद्ध है। छापने के लिए लाल काला और हरा रंग का उपयोग किया जाता है। यदि कपड़ों पर कहीं रंग नहीं लगाना हो तो वहां मोम मिट्टी या गेहूं की लोई का दाबू लगाया जाता है।
NOTE – मॉम निर्मित दाबू प्रिंट जैसलमेर में होता है। लूनी नदी के प्रदुषण का कारण रँगाई-छपाई उद्योग ही है।
बंधेज कला
जयपुर, जोधपुर तथा शेखावाटी में कपड़ों को बांधकर रंगने का काम किया जाता है। जिसे बंधेज कहते हैं यह मूलत मुल्तान की है। चूंदडी घर जोधपुर में बंधेज का कार्य करने वाले चढ़ावा जाति के मुसलमानों की बस्ती को चुनरी/ चूंदडी घर कहते हैं
बंधेज निम्न प्रकार के होते हैं-
- त्रिबूंदी
- मोठड़ा
- धनक
इस प्रकार की ओढ़नी पर बड़ी-बड़ी चौकोर बुंदे होती है।
पोमचा
पोमचा जयपुर व शेखावाटी क्षेत्र में पहना जाता है। पुत्र के जन्म पर माता पीले रंग का पोमचा पहनती है। जबकी पुत्री के जन्म पर बैंगनी रंग का पोमचा पहना जाता है।
लहरिया
लहरिया कई प्रकार के होते हैं जैसे कोहनीदार, कलीदार, जालदार, नगीना, पल्लू, खत, पंचलडी, पाटली आदि
- डाबू
- लाडू
- पतंगा
- चोखाना
NOTE- बंधेज द्वारा पांच रंगों में रंगा गया साफा बावरा तथा दो रंगों में रंगा गया साफा मोठरा कहलाता है।
खराद कला
उदयपुर में लकड़ी की मूर्तियां और खिलौने बनाना
तारकशी कला
चांदी के बारीक तारों से वस्तुएं तथा आभूषण नाथद्वारा (राजसमंद) में बनाई जाती है।
कुट्टी-मुट्टी
कागज की लुगदी बनाकर घरेलू साज-सज्जा के सामान बनाना पेपर मेशी या कुट्टी-मुट्टी कहलाता है। यह जयपुर की प्रसिद्ध है।
खेसला
लेटा (जालौर) में सूती कपड़े से बनी मोटी चद्दर।
मिनिएचर पेंटिंग
जोधपुर, जयपुर तथा किशनगढ़ में हाथीदांत पर चित्रकारी।
मूर्तियाँ
काले पत्थर की मूर्तियाँ – तलवाड़ा (बांसवाडा)
लाल पत्थर की मूर्तियाँ – थानागाजी (अलवर)
संगमरमर की मूर्तियाँ – जयपुर, पिण्डवाडा (सिरोही)
जस्ते की मूर्तियाँ – जोधपुर
मामाजी के घोड़े – हरजी (जालौर)
रामदेवजी के घोड़े – पोकरण (जैसलमेर)
कलाबतु, कारचोब, जरदोजी – जयपुर
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